१३ बैशाख २०८१, बिहीबार

धूर्तों का जमघट, जिंदों का मरघट,

रास नहीं आई …
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बात की बात पे,
कह दूँ,
छुपाना क्या है ?
ये जो सियासत है न !
दो कौड़ी की;
रास नहीं आई।
धूर्तों का जमघट,
जिंदों का मरघट,
झूठी सी मुस्कुराट,
फीकी-फीकी;
रास नहीं आई।
हर-पल फ़रेब से,
ग़ुमराह, राह करते,
आवाम की कमाई,
ज़ेबों में ख़ूब भरते।
बेशर्मों की ढिठाई;
रास नहीं आई।

– गंगेश मिश्र

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